पत्रकारिता के नाम पर बिकती कलम: सतर्कता के दबाव में झूठी खबरें और गिरते मानदंड

उत्तराखंड में विजिलेंस विभाग के दबाव में काम कर रहे कुछ पत्रकारों द्वारा झूठी और एकतरफा खबरें छापने की प्रवृत्ति पर आधारित विशेष रिपोर्ट। यह लेख पत्रकारिता की नैतिकता, सत्य की जिम्मेदारी और लोकतंत्र में स्वतंत्र मीडिया की भूमिका पर गंभीर सवाल उठाता है।

May 12, 2025 - 01:08
May 12, 2025 - 01:10
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पत्रकारिता के नाम पर बिकती कलम: सतर्कता के दबाव में झूठी खबरें और गिरते मानदंड
उत्तराखंड में विजिलेंस विभाग के दबाव में काम कर रहे कुछ पत्रकारों द्वारा झूठी और एकतरफा खबरें छापने की प्रवृत्ति पर आधारित विशेष रिपोर्ट। यह लेख पत्रकारिता की नैतिकता, सत्य की जिम्मेदारी और लोकतंत्र में स्वतंत्र मीडिया की भूमिका पर गंभीर सवाल उठाता है।

भारत के लोकतंत्र की ताकत उसकी स्वतंत्र पत्रकारिता मानी जाती है। चौथा स्तंभ कहलाने वाली पत्रकारिता का धर्म है – सत्य की खोज, जनहित में सवाल, और सत्ता के अन्याय के विरुद्ध खड़ा होना। परंतु जब यही पत्रकारिता सत्ता या सतर्कता विभाग (विजिलेंस) के इशारों पर झुक जाए, जब खबरें सच्चाई की बजाय दबाव में बननी लगें, और जब पत्रकार खुद की अंतरात्मा को विज्ञापन और राजनीतिक लाभ के लिए गिरवी रख दें – तो यह केवल पत्रकारिता का पतन नहीं, बल्कि लोकतंत्र की आत्मा पर सीधा प्रहार है।

वर्तमान संदर्भ – उत्तराखंड में विजिलेंस की भूमिका और बिकती पत्रकारिता

हाल ही में उत्तराखंड, विशेषकर हल्द्वानी और रुद्रपुर क्षेत्र में, विजिलेंस विभाग द्वारा भ्रष्टाचार के नाम पर किए गए कुछ तथाकथित “ट्रैप ऑपरेशनों” की खबरें कुछ पोर्टलों और अखबारों में छपी हैं। लेकिन जब इन खबरों की गहराई में जाकर तथ्यों को देखा जाता है, तो सामने आता है कि ये रिपोर्टें आधे-अधूरे तथ्यों पर आधारित हैं, जिनका उद्देश्य सत्य उजागर करना नहीं, बल्कि एक व्यक्ति को समाज के सामने “घोषित दोषी” साबित करना होता है – वह भी मामले की सुनवाई या न्यायिक प्रक्रिया पूरी होने से पहले।

यह कौन सी पत्रकारिता है? क्या एकतरफा आरोपों को पूरी तरह सच मान लेना और उसे खबर के रूप में प्रकाशित कर देना पत्रकारिता है?

पत्रकारिता की नैतिकता – केवल वेबसाइटों की सजावट बन गई है?

आश्चर्य होता है कि जो पत्रकार अपनी वेबसाइटों और बायोलाइन में "नैतिक पत्रकारिता", "जनहित में समाचार", और "सत्य की खोज" जैसे आदर्श लिखते हैं, वही पत्रकार विजिलेंस से एक फोन आते ही बिना सत्यापन, बिना दस्तावेज, बिना दोनों पक्षों की बात सुने खबर छाप देते हैं।

उनका दोहरा चरित्र साफ झलकता है:

  • जिनके खुद के ईमान ₹5000 के एड और ₹50 के पेटीएम रिचार्ज में बिक जाते हैं,

  • वे आज झूठे ट्रैप में फँसे लोगों के ईमान की बात कर रहे हैं,

  • और वो भी विजिलेंस के आदेश पर।

क्या पत्रकारिता इतनी सस्ती हो गई है?

सवाल पत्रकारों से – क्या आप न्यायपालिका से ऊपर हैं?

जब कोई मामला अदालत में लंबित हो, जब चार्जशीट तक फाइल न हुई हो, जब तथ्यों पर बहस होनी बाकी हो, और जब आरोपी का पक्ष सामने ही न आया हो — ऐसे समय में पत्रकार अगर एकतरफा रिपोर्टिंग करें तो क्या वे खुद को न्यायपालिका से ऊपर मानते हैं?

क्यों नहीं छापते ये पत्रकार:

  • शिकायतकर्ता के आपराधिक इतिहास की खबरें?

  • उन केसों का विवरण, जिनमें शिकायतकर्ता पहले से दोषी ठहराया जा चुका है?

  • RTI से मिले दस्तावेज, जो आरोपी की बेगुनाही की तरफ इशारा करते हैं?

  • वो मेडिकल रिपोर्ट्स जो गिरफ्तारी के तुरंत बाद स्वास्थ्य खतरे को दर्शाती हैं?

  • वो कॉल रिकॉर्डिंग्स जिनमें साजिश की बू साफ आती है?

इन खबरों के बारे में ये पत्रकार मौन क्यों हो जाते हैं? क्या उनके लिए खबर वही होती है जो सतर्कता विभाग प्रेस नोट में भेजता है?

सतर्कता का 'नायक' और पत्रकारिता का 'दास'

विजिलेंस विभाग, जिसका काम है भ्रष्टाचार को पकड़ना, अब कुछ मामलों में खुद राजनीतिक हथियार बनता जा रहा है। गलत नीयत से किए गए ट्रैप, बिना पर्याप्त जांच, केवल "काम न करने" के कारण अधिकारी को फंसाना, और फिर अपने ही "गोपनीय सूत्रों" के माध्यम से पत्रकारों को खबरें प्लांट करना — ये प्रक्रिया न्याय और निष्पक्षता की हत्या है।

और कुछ पत्रकार इस व्यवस्था के दास बन चुके हैं। वे खबर नहीं छापते, बल्कि विजिलेंस की चार्जशीट का पहला पन्ना छाप देते हैं – वो भी मनचाहे शब्दों में सजाकर।

झूठी खबरों का असर – सिर्फ आरोपी नहीं, पूरा परिवार भुगतता है

जब कोई खबर "अधिकारी रिश्वत लेते रंगे हाथ गिरफ्तार" जैसी सनसनीखेज हेडलाइन के साथ प्रकाशित होती है, तो समाज उस व्यक्ति को अपराधी मान लेता है, भले ही बाद में अदालत उसे निर्दोष साबित कर दे।

  • उसका परिवार सार्वजनिक अपमान झेलता है।

  • उसकी बेटियों को स्कूलों में ताने सुनने पड़ते हैं।

  • बीमार पत्नी को अस्पताल में नज़रें झुकानी पड़ती हैं।

  • और खुद अधिकारी को समाज में गुनहगार की तरह देखा जाता है, बिना किसी सुनवाई के।

क्या पत्रकारों को इसका एहसास है? या उन्होंने अपने हृदय की संवेदनशीलता भी "कंटेंट मार्केटिंग" में गिरवी रख दी है?

विजिलेंस हल्द्वानी के खेल – छवि खराब करो, फिर जाँच करो

हमारे पास ऐसे दर्जनों मामले हैं जिनमें:

  • पहले ट्रैप किया गया,

  • फिर मीडिया में खबरें प्लांट की गईं,

  • और अंत में, या तो चार्जशीट बनी ही नहीं, या अदालत से ज़मानत मिल गई

तथ्य यह है कि कई बार विजिलेंस खुद जांच में निष्पक्ष नहीं रहती:

  • शिकायतकर्ता का बयान रिकॉर्ड करने वाला अधिकारी ही बाद में ट्रैप टीम का हिस्सा बनता है।

  • स्वतंत्र गवाहों की जगह विभागीय कर्मचारियों को “स्वतंत्र साक्षी” बना दिया जाता है।

  • मेडिकल जरूरतों की अनदेखी कर ली जाती है।

और पत्रकार? उन्हें न तो FIR पढ़ने की ज़रूरत लगती है, न ही BNSS की प्रक्रिया समझने की। उनके लिए तो एक फोन या मैसेज ही "सत्य" है।

पत्रकारिता नहीं, चरित्र-हत्या का मंच बनती खबरें

सच्ची पत्रकारिता का धर्म है:

  • दोनों पक्षों से बात करना,

  • दस्तावेज़ देखना,

  • RTI और कोर्ट रिकॉर्ड से तथ्यों की पुष्टि करना,

  • और अंतिम निष्कर्ष अदालत पर छोड़ देना।

लेकिन जब पत्रकार स्वयं जज, वकील और जल्लाद बन जाएं, तो वह पत्रकारिता नहीं रहती, चरित्र हत्या बन जाती है।

हमारी अपील – लौटिए सच्चाई की ओर

हम उन सभी पत्रकारों से एक विनम्र अपील करते हैं:

“आप खबर लिखिए, सच्चाई पर आधारित। न कि दबाव में, न डर में, और न लालच में।”

  • यदि आप न्याय चाहते हैं, तो निष्पक्षता से रिपोर्टिंग कीजिए।

  • यदि आप समाज सुधारना चाहते हैं, तो तथ्यों से नहीं भागिए।

  • और यदि आप पत्रकार हैं, तो कलम की ताकत को सत्ता की तलवार न बनाइए।

निष्कर्ष:

विजिलेंस और पत्रकारों की साझेदारी अगर सच के लिए हो तो वह जनसेवा है। लेकिन यदि यह साझेदारी झूठ फैलाने और झूठे ट्रैप को वैध ठहराने के लिए हो, तो यह लोकतंत्र के लिए घातक है।

आज ज़रूरत है ऐसी पत्रकारिता की, जो किसी के कहने पर नहीं, अपने विवेक और सबूतों के आधार पर चलती हो। और अगर आज हम इस पतन पर सवाल नहीं उठाएंगे, तो कल हर कोई एक झूठे ट्रैप और झूठी हेडलाइन का शिकार बन सकता है।

(यह रिपोर्ट किसी विशेष पत्रकार या संस्था को लक्ष्य नहीं करती, बल्कि उस पत्रकारिता प्रवृत्ति की आलोचना करती है जो सत्ता या दबाव के आगे झुककर पत्रकारिता की आत्मा का सौदा करती है।)

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